6/3/07

माँ और बेटा


एक बार एक माँ और उसका बेटा जंगल मॆं से जा रहे थे | उनको रात होने से पहले पहले गाँव पहुचना था | अचानक बेटे के पैर मॆं मोच आ गयी | अब तो बेटे से चला ना जाता था | फिर भी शाम से पहले तो पहुंचना था | बेटा जवान था, बोला "माँ हम चलते रहेंगे, कहीँ रुकेंगे नही, हमको शाम से पहले गाँव पहुंचना है " | माँ ने कहा कि "बेटा तुझे इतनी परेशानी हो रही है चल्नेमैं , थोड़ी देर आराम कर लेते हैं , जब तुझको आराम आ जाएगा तब ही चलेंगे , वर्ना तुझको परेशानी मॆं देख कर मुझसे तो ना चला जाएगा" | बेटे ने पहले तो चलने कि कोशिश कि पर जब बिल्कुल नही चल पाया तो माँ कि बात मान कर बैठ गया | थोड़ी देर बाद उन्होने फिर चलाना शुरू किया | थोड़ी दूर चलाए ही थे कि बेटे के पैर मॆं फिर बहुत दर्द शुरू हो गया| माँ को देखा ना गया उसने फिर से बेटे को बैठा लिए और अपनी साडी के पल्लू को अपनी फूंक से गरम कर के बेटे के पैर को सेकने लगी | माँ धीरे धीरे अपनी फूंक से सदी के पल्लू को गरम करती फिर बेटे के पैर पर रखती , बेटे को आराम तो मिल रह था पर उसको गाँव अँधेरा होने से पहले पहुँचने कि जल्दी थी, इसीलिये वो झल्ला भी रहा था | गरमी कि वजह से उनको प्यास लगने लगी | माँ कि भी काफी उम्र थी और उसको भी काफी प्यास लग रही थी पर माँ ने एक भी बार अभी तक पानी के लिए कहा नही था क्यूंकि उसको मालूम था कि बेटे पानी नही ला पायेगा | तभी बेटे ने कहा कि "माँ बड़ी प्यास लगी है अगर थोडा पानी पी लूं तो चलाने लायक हो जाऊंगा अब दर्द भी थोडा कम हो रह है "| माँ ने फ़ौरन कहा "बेटा तू आराम कर मैं कहीँ से पानी लेके आती हूँ " | माँ ने खाली लोटा उठाया और चल दी | बेटे ने सोचा कि रोक लूँ पर ये सोच कर रूक गया कि अगर पानी पी लूँगा तो कम से कम चल तो पाऊंगा | करीब आधे घंटे बाद माँ आयी , उसके लोटे मैं पानी था, वो काफी थकी हुई थी , शायद काफी दूर पानी मिला था | बेटे ने पानी पिया और कहा "माँ अब चल सकता हूँ प्यास भी बुझ गयी है और दर्द भी कम हो गया है " | माँ काफी थकी हुई थी पर फिर भी चलने को तैयार हो गयी | उसको अभी भी बेटे के दर्द कि चिन्ता थी |
चलते चलते बेटे ने कहा "माँ अगर मैं धीरे चलता हूँ तो पैर पे ज्यादा दबाव पड़ता है और दर्द बढ़ता है, पर तेज़ चलते हुए अगर मोच वाले पैर पर कम दबाव डालता हूँ तो दर्द तो होता है पर बढ़ता नही जाता है । इसीलिये हमको तेज़ चलना चाहिऐ | माँ कि अब उम्र हो चलाई थी वो इतन अतेज़ नही चल सकती थी पर फिर भी बेटे के लिए वो चलने लगी पर कुछ कदम चलते ही वो हांफ गयी | बेटे ने देख कि माँ तेज़ नही चल पायेगी और वो अगर धीरे चलेगा तो चल नही पायेगा | और शाम से पहले गाँव पहुंचना जरुरी है | बेटा बोला "माँ मैं एक काम कर्ता हूँ मैं तेज़ चलता हूँ और आगे निकल जाता हूँ , कुछ दूर जाके मैं रूक कर तुम्हारा इंतज़ार करुंगा जब तुम आ जोगी तो फिर आगे चलूँगा और फिर कुछ दूर जाके तुम्हारा इंतज़ार करुंगा" | माँ को जंगल मैं अकेले चलने मैं ड़र तो था पर उसने कहा नही और बोला कि ठीक है | बेटा जल्दी जल्दी चलता हुआ आगे निकल गया | माँ पीछे धीरे धीरे चलती रही , कुछ दूर तो उसे बेटा दिखा फिर दिखना बंद हो गया | माँ ने मन ही मन भगवान् का नाम लेना शुरू कर दिया और धीरे धीरे चलती रही | माँ को चलाते चलते काफी देर होगयी पर उसको बेटा नही दिखा रस्ते मे कहीँ | माँ को ड़र सताने लगा कि कहीँ गलत रस्ते पे तो नही आ गयी, सामान भी सारा माँ के पास था क्यूंकि वो बेटे को चोट कि स्थिति मैं सामान नही उठाने देना चाहती थी | उधर बेटा चलते चलते काफी दूर निकल आया था वो जल्दी चलाने के चक्कर मैं माँ के बारे मे भूल ही गया और जब उसे याद आया तो वो लगभग गाँव के पास पहुच गया था | फिर वो वहीँ एक पत्थर पे बैठ गया और माँ का इंतज़ार करने लगा |काफी देर हो गयी पर माँ नही आयी |इधर माँ चलती जा रही थी धीरे धीरे | वो अपने को कोस रही थी कि क्यों तेज़ नही चल पायी और बेटे से अलग क्यों हूई | उधर बेटा अब झल्लाने लगा था कि इतने देर हो गयी भी तक माँ आयी क्यों नही,कहीँ गलत रस्ते पे तो नही चली गयी, अब मैं उठ के कहॉ वापस देखने जाऊं , इतनी मुश्किल से तो चल के यहाँ तक आया हूँ | एक - दो बार बेटे ने सोचा भी कि कहीँ कुछ अनिष्ट ना हुआ हो इसीलिये देख आता हूँ पर वो ये सोच के नही उठा कि "आज ही अनिष्ट क्यों होगा और मेरे साथ ही क्यों होगा , और अभी आती होगी माँ "|
काफी देर हो गयी और बेटा बैठे बैठे इंतज़ार कर्ता रहा | इस बीच उसने काफी बार जा के माँ कोदेखने का सोचा पर हर बार कुछ ना कुछ सोच के नही गया और वहीँ बैठा रहा |

तभी उसको माँ आती हुई दिखायी दी | माँ को भी जैसे ही बेटा दिखा उसकी जान मैं जान आयी , वो अभी तक ही धीरे धीरे चलते हुए भगवान् का नाम ले रही थी और बेटे के पैर के दर्द के बारे मे सोच रही थी | जैसे ही वो बेटे के पास पहुंची तो उसने पूछा "बेटे अब पैर का दर्द कैसा है बढ तो नही गया ?"| बेटे ने झल्लाते हुए जवाब दिया "माँ दर्द को छोडो तुम कहॉ रह गयी थी , कितना धीरे चलती हो, मैं तुमको देखने उल्टे रास्ते आने ही वाला था , चलो अब गाँव बिल्कुल पास ही है , अब बैठेंगे नही चलते हैं "|

गोगोल



कल निकोलाई गोगोल कि प्रसिद्ध कृति "The Overcoat" पढी | रुसी साहित्य मैं काफी समय से पढता हुआ आ रह हूँ , उस हिसाब से अभी तक मुझे गोगोल कि Overcoat पढ़ लेनी चाहिऐ थी | पर सबसे पहेल मैंने दोस्तोयेव्सकी और तोल्स्तोय को पढा था, और उनको पढने के बाद मैं उन्ही कि और रचनाएं ही पढ़ रहा था |

कुछ दिन पहले मीरा नायर कि "Namesake" फिल्म देखी और उस फिल्म की कहानी मॆं "गोगोल" (खुद गोगोल का नाम भी ) कि "Overcoat" कहानी इस तरह गुंथी हुई थी कि मैं पढे बिना नही रह पाया। भला हो Project Gutenburg का जिसके होने से आपको किसी भी कहानी, नोवेल, कविता को नेट पर ढूँढने लिए समय नही बरबाद करना पड़ता | गूगल के बहुत से अच्छे कामों मॆं अब Project Gutenburg भी जुड़ गया है | "Namesake" एक बहुत ही अच्छी फिल्म है, और देखते हुए आपके लगता नही है कि आप एक नोवेल पेर बनी हुई फिल्म देख रहे हैं या खुद नोवेल पढ़ रहे हैं | ऐसी फिल्म कम ही बनती हैं जिनके बारे मैं उपन्यास लिखने वाला खुद कहे कि हाँ निर्देशक ने किताब के साथ न्याय किया है |

गोगोल को पढ़ते हुए ऐसा लगा कि मैं दोस्तोयेव्सकी को ही पढ़ रहा हूँ | गोगोल का नायक भी दोस्तोयेव्सकी के नायक कि तरह ही "छोटा आदमी "(खुद दोस्तोयेव्सकी के शब्दों मॆं ) है | Overcoat के "अकैकी" और "White Nights" के "मकार" मे तो जैसे फर्क ही नही है | दोस्तोयेव्सकी को छोटे आदमी कि त्रासदी से पूरे समाज को उजागर करने कि प्रेरणा निश्चित है गोगोल से मिली है | दोनो के नायकों मॆं बहुत सामनाता होते हुए भी दोनो के नायकों मॆं एक बहुत ही बड़ा और बुनियादी अंतर है | दोस्तोयेव्सकी का नायक पाठक को बिल्कुल अपने जैसा ही लगता है, उसके विचार बिल्कुल वोही होते हैं जो खुद पाठक के मन मॆं अक्सर आते रहते हैं | गोगोल का नायक पाठक के विचारों से इसलिये नही मिलता क्यूंकि वो खुद कोई विचार व्यक्त ही नही करता | वो समाज के , अभीजात्य वर्ग कि बातों पर ध्यान ही नही देता है और अपनी नज़र मॆं उनको कोई भी प्राथमिकता नही देता है | वो प्राथमिकता इसीलिये नही देता है क्यों वो ऐसा बन नही पायेगा बल्कि वो ये सब सोचना ही नही चाहता | जबकि इसके उलट दोस्तोयेव्सकी का नायक सब समझता है और ये भी समझता है कि वो क्याकर सकता है और क्या नही उसके मन मैं बड़ा बनने कि चाह है पर वो उस तरह से बड़ा नही बनना चाहता जैसे कि और लोग हैं | वो अपनी ही तरह बड़ा बनना चाहता है |

दोनो नायक सरकारी कार्यालय मैं दस्तावेजों कि नक़ल करके प्रतिलिपि बनाने वाले हैं पर फिर भी जब गोगोल के नायक को ऐसा कार्य दिया जाता है जिसमे नक़ल के साथ साथ हल्का सा बदलाव भी है तो उसको पसीने आ जाते हैं और वो कहता है कि "कोई साधारण नक़ल का ही काम हो तो अच्छा है "| जबकि इसके उलट दोस्तोयेव्सकी का नायक सपने देखता है कि उसके अच्छे काम के कारन उसको ऊपर तक प्रशंसा मिले और मौका मिलने पर वो ऐसा काम करने कि कोशिश भी करता है |

पर फिर भी दोनो मैं बहुत समानता है | दोनो ही अधेड़ उम्र के हैं, दोनो ही नक़ल करने वाले लिपिक हैं , दोनो ही "छोटे आदमी" हैं | गोगोल और दोस्तोयेव्सकी की इस छोटे आदमी की त्रासदी के द्वारा संगठित रूस के तत्कालीन समाज का चित्रण वाकई अदभुत है |

बचपन और माँ


जब भी अपने बचपन के बारे मैं याद करता हूँ तो बहुत ही थोड़ी बातें याद आती हैं | सुनने मैने अजीब लगता है पेर ये सच है | दरअसल मैं वर्तमान के साथ जीने का इतना आदि हो चुका था (और अब भी हूँ ) की भूत को भूलता चला गया, उन बातों को भी जिनको कभी भुलाया ही नही जा सकता था | आदमी के लिए एह बहुत ज़रूरी है की वक़्त वक़्त पेर अपने अटतेट को याद करता रहे|
ऐसा इसीलिए लिख रहा हूँ की आज जब मैने अपने बचपन की बातें याद करने की कोशिश की तो सिवाय अपने माँ के बारे मैं ही बातें याद आईं| मैं काफ़ी देर तक सोचता रहा पेर ऐसी कोई बात ही याद नही आई जिसमे माँ नही हो या उसका ज़िक्र ना हो |

जब भी मैने अपना शाम को देर तक बाहर खेलना याद किया , मुझे याद आया माँ का बुलाना

जब भी मैने अपना सुबह school जाना याद कीय अमुझे याद आया माँ का नेहलना, तैयार कारवाना, नाश्ता करना

जब भी मुझे School से लौटना याद आया तो मुझे याद आया माँ का आते ही प्यार करना और ये पूछना की आज school मैं क्या क्या हुआ

जब भी मुझे गर्मियों की छुट्टियाँ याद आईं मुझे याद आया बार बार माँ का ठंडी लास्सी, ठंडा दूध बना के पिलाना और radio station ले जाना.

खाना बनाती माँ

झाड़ू लगाती माँ

प्यार से सुलाती माँ

डाँट के उठाती हुई माँ

गोड़ी मैं उठाती माँ

मल मल के नेहलाती माँ

पिताजी की डाँट से बचाती माँ



ऐसा लगता है की माँ और बचपन एक बात हैं |